छत तो मैंने बहुत देखे, अमीर का छत, गरीब का छत, जानवर का छत, इंसान का छत, लेकिन एक चाह थी की जितने छत इस धरती पर बने है कम से कम उस धरती का छत भी देखू. मौका आया.
१० जुलाई के आस पास कम्पनी ने हमारा नाम फैम के लिए घोषित किया, कि २० जुलाई से २७ तक लेह जाना है, जाईये घूमिये फिरिए खाइए, वापिस आईये फिर जुट जाईये हल में, इसमें कोई बुराई भी नहीं.
तैयारियां की गयी, सामान जुटाए गए (समझ जाईये), सीना चौड़ा कर कई लोगो को बताया भी, १९ जुलाई की रात अपने एक सहकर्मी के डेरा जमाया जिसका घर एयरपोर्ट के पास था. रातभर कोई सोया नहीं, सारे खी खी खु खु करते रहे, इस खि खी -खु खु में काफी कुछ महत्वपूर्ण भूमिका अदा की जिसका हम दिल से धन्यवाद देते है. सुबह के ५ बजे फ्लाईट थी और हम १२ बजे निकल लिए, बाकी साथी भी आ चुके थे, सुबह ४.३० पर हम इन हुए, फ्लाईट उडी, धक्का लगा, लेकिन मजा आया.
मै अधखुली आँखों से सपना देख रहा था, की पहुच के क्या क्या करना है ? कैसे घूमना है, कहा जाना है (हालाकि सब कुछ आफिस की तरफ से तय था) एक घंटे बाद जब हम लेह के ऊपर भूखे चिल्ह की तरह मडराने लगे तो कलेजा ख़ुशी के मारे मुह को आ गया. उफ्फ्फ, क्या दृश्य है ये. बिलकुल सुबह सुबह सफ़ेद बर्फ पर सूरज की पहली किरण इसी पवर्त माला को सलामी देते हुए ख़ुशी से लाल हो रही थी, लेह के पवर्त अपने सफेदी का घमंड छोड़ अरुणोदय के साथ ख़ुशी में लाल हुए पड़े थे. खिड़की के लिए पीछे वाला परिवार कांव कांव भी करने लगा, जिसकी तरफ बिना ध्यान दिए हुए हम बस नीचे देखे जा रहे थे. वाह ..
तभी पालयट की आवाज गूंजी, मौसम ख़राब होने की वजह फ्लाईट लैंड नहीं होगी. इसे हम अपनी भाषा में "के एल पि डी" कहते है (Kya Laut aye Purane Din). खैर ये तो हो चूका था, वापिस होते समय एसा लग रहा था जैसे इज्जत लुटा के आये हो. खैर ये समस्या आम है इस रूट पे, १०० में से ५ फ्लाईट के साथ यही होता है मौसम की वजह से, और ये भी कहा जाता है की इस एअरपोर्ट पे फ्लाईट लैंड करना अपने आप में एक चुनौती है, रन वे काफी छोटा है, एयर फ़ोर्स का है.
फिर हमारा डेट रीशेडूल हुआ २७ जुलाई को. अबकी बार विश्वाश था, किस्मत इतनी भी ख़राब नहीं, ख़ुशी भी थी एक बार की रेकी यु ही हो गयी थी.
एअरपोर्ट पे उतरते ही लम्बी सांस ली, वो इसलिए की बाहर निकलते आक्सीजन की कमी होनी है, और दूसरा इसलिए की अभी मुह काला करा के वापिस नहीं लौटना पड़ा. उतरते ही फोटो शूट हुआ. हमारी गाडिया लगी थी, हम होटल की और चले.
ली - चेन होटल एक साफ़ सुथरा ३ स्टार होटल है, इसका लोकेशन भी खूबसूरत है , बाजार भी पास और शांति स्तूप भी.
चेक इन करते ही सब प्लान बनाने लगे, की पहले पिया जाय या घुमा जाय, तो तय हुआ की घुमा जाय. पहले की दिन लेह की साईट सीन हुयी, हालाकि यह मना होता है, पहले दिन यहाँ एक्लेमाईटेजेशन के लिए सजेस्टेड है "आम यात्री- पर्यटक के लिए " के लिए.
लेह यु तो लामावो और बुधिष्टो का जगह माना जाता है, लेकिन यहाँ की खूबसूरती एक बार जब आपके रंग पे चढ़ेगी तो आप बाकी भूल जायेंगे. खूब सूरत सुखी पहाड़िया, सर्द हवाएं .. आधी बर्फ से ढकी पहाड़ियां ...उफ़.
यहाँ के बाजार बहुत खुबसूरत है और रेस्टोरेंट भी, यहाँ आपको कई ऐसे रेस्टोरेंट मिल जायेंगे जो थीमेटिकल है, और बेहद खुबसूरत बिना ताम झाम के, आप यहाँ छोटी सी ड्रिंक ले सकते है. इसके बाद यदि आपने स्ट्रीट फ़ूड न उड़ाया तो क्या किया ? नॉन वेज के शौक़ीन के लिए यहाँ काफी ऑप्शन है. बिलकुल देशी स्टाईल में बना नॉन वेज. यहाँ बाईक भी आसानी से मिल जाती है किराए पे जिसका किराया आम तौर पर ३०० से ४०० तक प्रतिदिन होता है, पेट्रोल आप खुद भरवा ले फिर आप बंजारा से ले के फक्कड़ सब अपने आप बनते जाते है.
पहले दिन हेमिस मोनेस्ट्री देखा जो बेहद ही खुबसूरत था और बाजार में ही तफरी रही जो की उपर बताया जा चूका है.
दिन ख़त्म हुआ, शाम तक सब बुरी तरह थक गए लेकिन सब खुश लग रहे थे, और न थके होने का नाटक कर रहे थे, "फटे तो फटे पोजीशन न घटे". शामे महफ़िल जमी और कुछ देर में ही कोई गायक बन गया, कोई कवि, कोई संत, कोई राजिनितिग्य, कोई दार्शनिक, कोई लुढक गया, और कोई उल्टी किया.
सबकी अंतरात्मा जागने को तैयार.
Day 2: लेह :
सूरज निकलने के साथ साथ ही रात का कवी, नेता, दर्शन सब गायब था, अभी सभी आदमी थे.सभी तैयार हुए. आज पूरा लेह घूमना था. सबसे पहले हम गए संगम, जी हाँ यहाँ भी संगम है, इंडस और सिन्धु नदी का, बेहद खुबसूरत, यहाँ की हर चीज शायद इसलिए भी खुबसूरत लगाती है क्योकि लादधाख खुद खूब सूरत है. उसके बाद बारी थी गुप्त काल के थीक्से मोनेस्ट्री की जहाँ से पूरा शहर देखा जा सकता है.
मुझे सच में विश्वाश नहीं था की कोई ऐसी जगह हो सकती है जो गाड़ी को अपने चुम्बकीय प्रभाव से खींचे. कार का इंजन बंद था. ढलान पहाड़ी के विपरीत था, फिर भी गाढ़ी धीरे धीरे पहाड़ी की और चली जा रहा ही थी. ये एक बड़ा अद्भुद और गजब का आश्चर्य था हमारे लिए, पता नहीं क्यों ये दुनिया के आश्चर्यों में शामिल नहीं. सरकार को तेल खोजने की जगह कुछ ऐसी पहाड़ी हर दिशा में उगाना चाहिए.
शाम हो चुकी थी, सब कवि, दार्शनिक, नेता, गायक बनने के मूड में आ चुके थे.
लेह पैलेस
संगम
Day 3 : लेह - नुब्रा : १६० किलोमीटर
यु तो ये बस कहने के लिए है की १६० किलोमीटर और ४ घंटे, लेकिन आप मजे कर के चले तो पुरे दिन का रास्ता है.
तीसरे दिन का सफ़र रोमांचक रहा, सड़क जय था और साथ चलने वाली नदी वीरू, दोनों के साथ साथ हम लोग, सोचिये जरा जब आपके पास करने को कुछ न हो, न कम्पूटर, न मोबाईल, न फोन, और सामने बॉस या उनका चेहरा या उनका ख्याल न हो, हो तो बस एक लम्बा सुन्दर रास्ता और साथ साथ बहने वाली नदी, सोचिये कितना अदभुद आनंद आता है, ये उस दिन पता चला, यात्री दूल्हा हो और सड़क बीवी तो साथ चलने वाली नदी बिलकुल साली सा एहसास कराती है ( शादी शुदा लोगो को समझने में आसानी होगी).
रस्ते में पड़ती है मैत्रेयेयी बुध्धा की ३५ मीटर ऊँची बेहद खुबसूरत मूर्ति, आपके मुह से "वाह" बरबस निकलवा लेती है, और दीक्षित मोनेस्ट्री अपने आप में बेजोड़ है.
रास्ते में पड़ने वाली खार्दुन्गला पास जो की विश्व की सबसे जादा ऊँची मोटरेबल सड़क पे है, आपके सहनशक्ति को एक बार जरुर हिला देगी. लेह में पहली बार मै यहाँ थोडा कमजोरी महसूस कर रहा था, सांस लेने में भी तकलीफ हुयी. लेकिन मै daymox की गोलिया साथ लाया था, यहाँ काम आई.
अब आप नुब्रा वैली में आ चुके है, रास्ते में पढता है कैमल सफारी का स्थान, जो न करना एक बेहद रोमांचक एहसास को छोड़ देना जैसा होगा. ३०० से ४०० तक में आधे घंटे का बर्फीली रेगिस्तान में इस एहसास को छोड़ना सच में बेहद नाफ़रमानी वाली बात है.
कोई ४ बजे तक हम अपने कैम्प पहुचे- तीरथ कैम्प. आडू, और सेब के पेड़ो से घिरा तीरथ कैम्प कोई ४ एकड़ में फैला हुआ बेहद खुबसूरती के साथ कोई ३० टेंट समाये हुए है. जहाँ आप जी भर के सेब खा सकते है और जेब भी भर सकते है, कोई रोकने वाला नहीं देश खाने वाले नेतावो के लिए मुफीद जगह है. पहुचते ही सबने हनुमान बन पेड़ो पे आक्रमण कर जी भर उड़ाया, फिर शुरू हुआ चाय पकौड़ो का दौर. शाम हो चली थी, सबका कवी, नेता और दार्शनिक जागने को हो रहा था, लेकिन उत्प्रेरक स्थान आस पास न होने की वजह से ड्राईवर को याद किया गया, सच में देवदूत था वो हम सभी के लिए कम से उस समय. बचा हुआ "प्रसनाल्टी मेकर" उसके हवाले किया गया तो वो खुश हो गया, फिर हजार रूपये दे के सबने अपने हिसाब का "मेकर" मंगवाया.
शाम को कैम्प फायर हुआ, जबरजस्त, सबका कलाकार बाहर आ चूका था, यहाँ सिर्फ हम ही नहीं नहीं बल्कि देश भर के राजनीतिग्य, कवी, नॉनवेज सुनाने वाले अपने फार्म में आ चुके थे, जो की रात के कोई २ बजे थके तो याद आया की उन्हें सोना भी है.
Day 4 : नुब्रा - लेह.
भारी मन से तीर्थ कैम्प को बिदाई दी, और पेनोंग के सपने देखने लगे. रास्ते में जम के फोटोग्राफी.
Day : 5 लेह - पेनोंग:
क्रमश: ....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (14-06-2014) को "इंतज़ार का ज़ायका" (चर्चा मंच-1643) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आभार शास्त्री जी :)
Deleteसुंदर चित्र और विवरण
ReplyDeleteरोचक यात्रा वृतान्त...
ReplyDeleteएक बार जरा आप इस लिंक का भी अवलोकन कर लें .... कुछ आवशयक कारणों से ऐसा मुझे करना पड़ रहा है ... आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगे .... http://www.chalte-chalte.com/2014/06/blog-post_25.html
ReplyDeleteबेहतरीन लद्दाख यात्रा । लेकिन एक बात समझ नही आई । कि सिंधु को ही अंग्रेजी में इंडस कहते है । तो एक ही नदी का आपस में संगम कैसे होगा ?
ReplyDeleteमिस टाइपिंग गुरु जी, ठीक करता हु थोड़ी देर में।
Deleteमिस टाइपिंग गुरु जी, ठीक करता हु थोड़ी देर में।
Deleteआपका ब्लॉग अजीत सिंह जी से मिलता जुलता सा है।पांडेय जी की बताई अशुद्धि अभी तक ठीक नही करी😊
ReplyDeleteशब्दों की बाजीगरी भी अच्छी लगी
आपका ब्लॉग अजीत सिंह जी से मिलता जुलता सा है।पांडेय जी की बताई अशुद्धि अभी तक ठीक नही करी😊
ReplyDeleteशब्दों की बाजीगरी भी अच्छी लगी
Nice pictures.Thanks for this useful post.
ReplyDeleteTruly Awesome post ! It is really very interesting and informative. Thanks for posting this
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bahut achha post likha hai aapne
ReplyDeletemai bhi hindi blogger hu
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आप के ब्लॉग को पढ़कर अच्छा लगा। अद्भुत काम ! यह ब्लॉग शानदार ढंग से लिखा गया है जो की सभी महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराती है। आपको बहुत बहुत धन्यवाद।
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